कांग्रेस ने जब-जब किया चिंतन शिविर, तब-तब मिली हार, क्या उदयपुर से निकलेगा जीत का मंत्र

 कांग्रेस राजस्थान के उदयपुर में शुक्रवार यानि आज से तीन दिन तक चिंतन शिविर कर रही है, जहां पर पार्टी 2024 के चुनाव के जीत का मंत्र तलाशेगी. हालांकि, अब तक के इतिहास में 2003 के शिमला शिविर को छोड़कर कांग्रेस ने जब-जब चिंतन शिविर किया है तब-तब उसे चुनावी हार मिली है.





एक के बाद एक चुनाव में मिल रही हार से पस्त पड़ी कांग्रेस शुक्रवार से तीन दिनों तक उदयपुर चिंतन शिविर के जरिए अपनी संगठनात्मक कमजोरियों पर आत्ममंथन करेगी. 2024 में बीजेपी के चुनावी मॉडल का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस अपनी दशा और दिशा तय करेगी. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी सहित पार्टी के तमाम दिग्गज नेता उदयपुर पहुंच गए हैं, जहां पर देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, कृषि और युवाओं से जुड़े हुए मसलो पर मंथन होगा. इन्हीं मुद्दों के जरिए कांग्रेस देश की सियासत में अपने रिवाइवल का रोडमैप तय करेगी.


हालांकि, कांग्रेस के सियासी इतिहास में अब तक चार बार चिंतन शिविर आयोजित हो चुका है और पांचवा उदयपुर में हो रहा. कांग्रेस चार बार 'चिंतन शिविर' लगा चुकी है, लेकिन एक बार ही नतीजे उसके अनुकूल रहे हैं जबकि तीन बार हार का सामना करना पड़ा है. उत्तर प्रदेश, पंजाब सहित पांच राज्यों के चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक दो साल पहले अब पांचवा चिंतन शिविर उदयपुर में कर रही है. ऐसे में देखना है कि क्या उदयपुर से कांग्रेस का क्या उदय 2024 के लोकसभा चुनाव में हो पाएगा?


कांग्रेस को पहले चिंतन के बाद मिली हार


कांग्रेस का पहला चिंतन शिविर साल 1974 में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में आयोजित किया था. समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए इंदिरा गांधी ने चिंतन शिविर नवंबर 1974 में अयोजित किया थी. यह चिंतन शिविर यूपी के नरौरा (बुलंदशहर) में हुआ था, जहां पर अलग-अलग कमेटियों ने अलग-अलग मुद्दों पर चर्चा करके सरकार और इंदिरा गांधी पर लगातार तेज़ होते जा रहे व्यक्तिगत हमलों की काट ढूंढने पर विचार-विमर्श किया था. चिंतन और मंथन के बावजूद इंदिरा सरकार की लोकप्रियता गिरती गई और विपक्ष हावी होता गया.


आखिरकार इंदिरा गांधी को देश में आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी और 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को करारी मात मिली. कांग्रेस 352 सीटों से घटकर 154 सीटों पर सिमट गई जबकि जनता पार्टी 35 सीटों से बढ़कर 295 पर पहंच गई. कांग्रेस को सत्ता गवांनी पड़ी और मोरारजी देसाई के अगुवाई में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. इस तरह से कांग्रेस के चिंतन शिविर से कोई सियासी लाभ नहीं मिल सका पार्टी को?


दूसरे चिंतन शिविर का भी नहीं मिला फायदा


साल 1996 में केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद जब कांग्रेस कांग्रेस के नेताओं में सत्ता में वापसी की छटपटाहट बढ़ने लगी थी. ऐसे में राजीव गांधी की हत्या के 7 साल बाद गांधी परिवार की कांग्रेस में वापसी हुई. सीताराम केसरी को हटाकर सोनिया गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया. सोनिया गांधी ने पार्टी की राजनीतिक दशा और दिशा पर मंथन-चिंतन करने के लिए मध्यप्रदेश के पंचमढ़ी में चिंतन शिविर का आयोजन किया, जहां कांग्रेस ने एकला चलो की नीति तय किया.


1998 और 1999 के चुनाव में कांग्रेस को देशभर में अकेले चुनाव लड़ने का खामियाजा भुगतना पड़ा. 1998 में कांग्रेस को 141 सीटें मिली और 1999 में कांग्रेस 114 सीटें मिली. वहीं, 24 दलों के साथ गठबंधन के सहारे बीजेपी सत्ता में आई. अटल बिहारी वाजपेयी 1998 में 13 महीने और 1999 में पांच साल के लिए प्रधानमंत्री बने और मजबूत नेता के तौर पर उभरे. ऐसे में कांग्रेस को पंचमढ़ी में चिंतन शिविर करने का सियासी लाभ नहीं मिला.


2003 में गठबंधन से निकला जीत का मंत्र


एकला चलो की नीति से कांग्रेसियों को लगने लगा था कि अब अगर कांग्रेस ने गठबंधन राजनीति को नहीं अपनाया तो कभी सत्ता में वापसी नहीं कर पाएगी. लिहाजा कांग्रेस ने साल 2003 में शिमला के चिंतन शिविर में पचमढ़ी की नीति को पलट दिया. इसी चिंतन शिविर में कांगेस ने 'एकला चलो' की नीति छोड़कर गठबंधन राजनीतिक की राह पर चलने का फैसला किया. कांग्रेस ने सामान्य विचारधारा वाले दलों के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने का निर्णायक किया. एनसीपी, आरजेडी जैसे दल साथ आए थे.


कांग्रेस को गठबंधन के निर्णय का फायदा मिला और 2004 के लोकसभा चुनाव में शाइनिंग इंडिया के रथ पर सवार अटल और आडवाणी की जोड़ी को पछाड़कर कांग्रेस ने केंद्र में सरकार बनाने में सफल रही. 2004 से लेकर 2014 तक सत्ता में कांग्रेस रही और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे. अब तक के इतिहास में कांग्रेस को 2003 के चिंतन शिविर से भी सियासी लाभ मिल सका है.


जयपुर

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